Sunday, January 24, 2010

मूंगफली वाले को बाहर फिकवा दूंगा!


यह एक ऐसे बुजुर्ग व लब्ध प्रतिष्ठित कवि का कथन है, जो खरी-खरी लिखते हैं और फिर उसे सुनाते भी हैं। बीती रात वे इंदौर के गांधी हाल में बने एक मंच पर थे। कविता कहने से पहले ही उन्होंने सभा में बैठे लोगों के बीच मूंगफली बेचने वाले को डपटते हुए यहां तक कह डाला कि जब हम एक मूंगफली वाले से नहीं निपट सकते, तो पाकिस्तान से भला कैसे निपटेंगे। हुआ भी ऐसा ही, उनकी डपट के बाद भी मूंगफली वाला मजे से काम में जुटा रहा। थोड़ी देर बाद वे फिर बिगड़े और 1000 प्रतिशत राजनीति से नाता रखने वाले कवि महोदय ने कह ही डाला 'मूंगफली वाले को बाहर फिंकवा दूंगा...चौंकिए मत मैं ऐसा कर चुका हूं। जब उन्हें अहसास हुआ कि कुछ ज्यादा डोज दे दिया, तो बात संभालते हुए कहा 'वह भी क्या करे, उसके पास भी पेट है। मंच सेवा-सुरभि, जिला प्रशासन, नगर पालिक निगम और इंदौर विकास प्राधिकरण का था। गणतंत्र दिवस के मौके पर छह कवियों को जुटाया गया। बालकवि बैरागी ने मूंगफली वाले के जरिए व्यवस्था पर गुस्सा उतारते हुए 'मैं मरूंगा नहीं, क्योंकि मैं ऐसा वैसा कुछ करूंगा नहीं  जैसी गंभीर रचना सुनाई। पाठ करने से पहले उन्होंने कह दिया मुझे ताली नहीं चाहिए। उधर, अशोक चक्रधर ने तालियों को लेकर पाकिस्तान की एक यात्रा का जिक्र कर दिया और अपने खाते में तालियां जमा कर ली। बैरागी ने चक्रधर की तारीफ करते हुए इंटरनेट में हिंदी का ठेर सारा श्रेय भी उनकी झोली में डाल दिया। चक्रधर ने भी तारीफ मंजूर करते हुए बताया 'सेव के लिए पहले 'रक्षा करें प्रचलित था, इसे 'सहेजें मैंने ही करवाया, कह दिया।
रतलाम के अजहर हाशमी ने देशभक्ति के तराने सुनाए तो श्याम अंगारा ने अपनी रचनाओं से काव्य मंच का आगाज किया। शैलेष लोढ़ा देर से आए लेकिन उन्हें सुनने के लिए लोग जुटे रहे। चूंकि वे कवि से अधिक अब तारक मेहता का उल्टा चश्मा से प्रसिद्ध हो चुके हैं। जो भी हो, एक कवि के लिए प्रसिद्ध ही सबकुछ है।
किरकिरी मंच पर पहुंचे इंदौरियों ने ही की। संचालन की ठिली डोर थामने वाले प्रो. राजीव शर्मा ने तीन चूहों का घटिया चुटकुला सुनाकर पंचम की फेल के लोगों का भद्दा मजाक उड़ाया। हुटिंग हुई तो बीच में एक दफा उन्हें कहना पड़ा, मैं आपके बीच तीस-चालीस सेकंड ही रहूंगा। संजय पटेल भी बीच में एकेवीएन के एक अफसर को मंच पर बुलाने के बहाने चढ़े और दस मिनट खराब कर गए। महापौर कृष्णमुरारी मोघे आयोजक होने के बावजूद काव्य पाठ शुरू होने के बाद आए और मंच पर चढ़कर स्वागत सत्कार टाइप का कृत्य कर गए।
खैर, बैरागी ने भवानीप्रसाद मिश्र और कन्हैयालाल सेठिया के दो संस्मरण सुनाकर हौंसला बढ़ाया। मिश्र ने कहा था आलोचकों के स्मारक नहीं बनते, इसलिए उनकी परवाह नहीं करना चाहिए, जबकि सेठिया ने लघुकथा में मिट्टी के घड़े को पीतल के घड़े से इसलिए बेहतर बताया था, क्योंकि वह पानी को अपने शरीर में उतार लेता है। चक्रधर और बैरागी दोनों ने ही चिंता जताई कि कवि सम्मेलनों में महिलाओं की उपस्थिति चिंता का कारण रहा है, क्योंकि महिला का उपहास धड़ल्ले से हो रहा है।

Wednesday, January 13, 2010

विवेकानंदजी, जय श्रीराम


कल सुबह रजाई में था तभी बाहर से ढोल-बाजों की आवाजें गूंजी। नींद से उठकर खिड़की से झांका। कुछ स्कूली छात्र-छात्राएं जुलूस के रूप में फैरी निकाल रहे थे। अवसर था युवा दिवस, जो विवेकानंद जयंती पर मनाया जाता है। खुशी हुई, इस बहाने ही सही लेकिन बच्चे विवेकानंद को याद कर रहे हैं। अलसाते हुए फिर रजाई में घुसने ही वाला था कि नारा गूंजा 'जय श्रीराम...जय-जय श्रीराम। मैं चौंका कि यह क्या हो गया। फिर झांका तो देखा पीछे आने वाले बच्चों का सरस्वती शिशु मंदिर के एक अध्यापक नारे लगवा रहे थे। छात्र-छात्राएं हाथ ऊंचे कर-करके समर्थन भी दे रहे थे। छात्राओं के गले में केसरिया दुपट्टा भी डला था। नारे लगते काफिले का समापन एक झांकी से हुआ। इसमें तीन बच्चे एक झोपड़ी में राम-लक्ष्मण-सीता बनकर बैठे थे। चूंकि ठंड अधिक थी, इसलिए सभी ने टोपे पहने थे। साथ ही नुक्ती भी खा रहे थे।
तो, बैचेनी के साथ युवा दिवस की शुरुआत हुई। अखबार उठाए तो मप्र सरकार के विज्ञापन दिखे। सभी सरकारी स्कूलों में सूर्य नमस्कार का ऐलान किया गया था। ऐसा लगा मानो किसी योग विद्वान का जन्मदिन मनाया जा रहा हो। खैर, बच्चों ने शिक्षकों के साथ सरकारी आदेश का पालन किया। चूंकि रात में बारिश हुई थी, इसलिए मैदान से सूर्य के नमस्कार की संभावना तो कम ही थी। आदेश था, इसलिए कहीं बरामदे में तो कहीं हॉल में प्रतीक के रुप में सूर्य को नमन दिया। दफ्तर पहुंचा तो फोटो देखा। एक स्कूल में महापौर कुछ बच्चों के साथ नमस्कार कर रहे थे। बच्चे शर्ट-पेंट में थे, जबकि महापौर ठंड से बचने का पूरा प्रबंध करके आए थे, यानी जर्सी वगैर शरीर पर डाल रखी थी। 
इस तरह से विवेकानंद के मायने बदल रहे हैं। वे राम भक्ति का एक पर्व बनकर रह गए हैं और उनका सांप्रदायिकरण भी हो गया है। भले ही उनका सूर्य नमस्कार से गहरा नाता न रहा हो। पर वे योग गुरु भी बन गए हैं। युवा दिवस के नाम पर जो कुछ राज्य में हुआ, वह अजीब सा संकेत देता है। अगली पीढ़ी को जब जवान होगे तो विवेकानंद को क्या समझेगें? क्या उन्हें कट्टर हिंदुवादी संत माना जाएगा? या राम कथाकार?

Sunday, January 10, 2010

नेत्री की पोरन पोली...पत्रकारों की ऊंगलियां

आज भाईदूज थी। बहन एक नेत्री थी और भाई बहुत सारे पत्रकार। बहन ने अपने हाथों पर टेबल पर सजी थालियों में पूरन पोली..बेसन से बनी मीठी रोटी.. परोसी। पीछे चलने वाले कर्मचारी से दिखने वाले युवक के हाथ में घी का गिलास था। वे पोली पर इसे डालकर चूर-चूरकर खाने का आग्रह कर रहे थे। खाने के शौकीनों ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। जमकर खाया और कहा अब तो एक-दो घंटे नींद लेना पड़ेगी।

सोचने की बात यह है कि बगैर सीजन भाईदूज कहां से आ गई? दरअसल, यह एक ऐसी भाईदूज है, जिसका इंदौरी पत्रकारों को बेसब्री से इंतजार रहता है। रहे भी क्यों न, एक ऐसी नेत्री के हाथों उन्हें खाने को मिलता है, जो आमतौर पर किसी को घास  योग्य भी नहीं समझतीं। वे बार बार चुनाव जितती हैं। कुछ लोग इसे उनकी साफ-सुथरी छवि का जादू कहते हैं तो कुछ विरोधी पार्टी का वॉकओवर। मीडिया चरित्र से यह नेत्री पूरी तरह वाकिफ है और तोल-तोलकर ही उनसे ताल्लुकात बढ़ाती या घटाती हैं। जनभावनाओं के चलते मीडिया मजबूर है कि बगैर पैकेज नेत्री को तवज्जो देना पड़ती है।

पत्रकार बताते हैं भाईदूज की डोर से बांधना नेत्री का बहुत पुराना शगल है। हालांकि, खाने के दौरान डोर से बांधने जैसी कोई रस्म नहीं होती है। वे तो बस यह सोचकर एक पुस्तक देती हैं कि पत्रकार पढ़ाकू होते हैं। ज्यादातर वहां से वही पुस्तक मिलती है, जिसमें पार्टी की विचारधारा को सशक्त किया जा सके। इस बार भी ऐसा ही हुआ। पुस्तक राजनीति की सख्शियत विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा है और इसका शीर्षक है राजपथ से लोकपथ तक । पुस्तक अभी तक पढ़ी नहीं है, लेकिन इसके बैककवर पर अयोध्या को नगर नहीं, देश की भावनाओं का केंद्र बताया गया है। पुस्तक की संपादक मृदुला सिन्हा हैं।

भोजन का रसास्वदन करने वालों में पत्रकारों से साथ ही संपादक, इंचार्ज, वरिष्ठ पत्रकार, कॉलमिस्ट से लेकर मीडिया  मालिकान तक मौजूद थे। दूसरी तरफ नेत्री खेमे के विधायक, पार्षद के साथ ही किचन केबिनेट के लोग। हंसी-ठिठोली भी हुई। एक पत्रकार ने यह कहकर पोली ले ली कि जब आपको सात बार से विपक्षी नहीं हरा सके तो मैं भला क्या कर सकता हूं, आप लाईं हैं तो खुशी से रख दीजिए।

यह भाईदूजी भोज नि:संदेह होटल, क्लब, फार्महाउस पर होने वाली पार्टियों से अलग था। पर उद्देश्य की दृष्टि से देखें तो यह किसी लाइजनिंग पार्टी से अधिक कुछ नहीं। जिस प्रकार से खबरें संस्कारित होती हैं, उसी तरह से यह पार्टी भी संस्कारित थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह बहुत ही सोफेस्टीकेटेड करप्शन था। देने वाला भी संस्कारवान और लेने वाला भी। एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं इसमें बुराई क्या है, कम से कम वे दूसरे नेताओं जैसी तो नहीं हैं, जो दावत के बाद छपास की चेष्ठा में रहते हैं। मैंने कहा यही तो खास बात है नेत्री की। उनके कुछ कहे बगैर ही काम बन जाता है।

यह सब पूरन पोली के साथ परोसे गए घी का नतीजा है। दिल के दौरे जैसी परेशानी न हो तो घी खाने में कोई  बुराई नहीं है...बस जरूरत इस बात की है कि ऊंगलियां सलामत रहें ताकि दफ्तर में बैठकर कीबोर्ड का टका-टक इस्तेमाल कर सकें।

नोट: नेत्री सांसद हैं और उन्हें सुमित्रा महाजन कहा जाता है। 

एक से या अनेक से !


यह नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन) का नया प्रचार मंत्र है। मंत्र के साथ एक छोटा सा कंडोम कार्टूननुमा आकार में खड़ा है और हंसते हुए कह रहा है कंडोम से। नाको ने मंत्र जनहित में जारी किया है।
मेरे घर के पास बंगाली चौराहे के एक कोने पर इस विज्ञापन का बड़ा सा होर्डिंग टंगा है। चौराहे पर दिवंगत माधवराव सिंधिया की काली प्रतिमा की दिशा भी कुछ ऐसी है मानो उसकी निगाहें विज्ञापन के अर्थों को समझने की कोशिश कर रही हों। वह तो काले पत्थर की मूरत है, क्या सोच रही है, बता नहीं सकता, लेकिन मैं तो हाड़-मांस का ढांचा हूं। थोड़ा सा खुश इसलिए हूं कि घर से पत्नी को लेकर निकलते वक्त चौराहे पर होकर जाना जरूरी नहीं। बाजू की गली से एक शार्टकट निकलता है, जिससे चौराहे पर जाए बगैर भी अपनी राह पकड़ी जा सकती है। होर्डिंग टंगने के बाद से शार्टकट ही मेरा मार्ग है।
मैं रास्ता क्यों बदल रहा हूं? क्योंकि होर्डिंग हटवाना मेरे बस में नहीं। मैं तो बस होर्डिंग के मंत्र का अर्थ करता हूं तो डर जाता हूं। दरअसल इतना महिला भोगी नारा पहले कभी खुले आम देखने या पढऩे को नहीं मिला। नारे का संदेश साफ है महिला भोग की वस्तु है और सिर्फ किसी एक से संबंध बनाना न तो नैतिकता है और न ही समय की जरूरत। जिस्मनुमा वस्तु का सेवन करो। बस ध्यान यह रहे कि आपने कंडोम नाम का कवच धारण कर रखा हो!
नाको की इस अश्लील हिमाकत के पीछे कौन है? यह पूछने या बताने की जरूरत नहीं। मामूली समïझदार भी यह जानता है कि कुछ कंपनियों के आर्थिक असले को बढ़ाने के खातिर देश में कंडोम प्रमोशन का काम बहुत तेज रफ्तार के साथ जारी है। इस रफ्तार में नैतिकता, मूल्य, सच्चाई, स्त्री मर्यादा, शर्म, लिहाज, जैसे तमाम छोटे पर अहम स्टेशन पीछे छूट रहे हैं।
मेरे मित्र डॉ. मनोहर भंडारी और डॉ. सदाचारी सिंह तोमर इस कंडोम प्रमोशन के खिलाफ तथ्यों के साथ जुटे हैं। उन्होंने नाको से कुछ सवाल पूछे, जिनके जवाब नाको के पास भी मौजूद नहीं है। नाको से उन्हें मिली चिठ्ठी के मुताबिक नाको को यह पता नहीं है कि चुंबन से एड्स होता है या नहीं, और कंडोम पहनने भर से आप एड्स से बच जाएंगे या नहीं? जरा गौर करें, दो सवाल व जवाबों पर -

सवाल-
नाको ने चुंबन को एचआईवी संक्रमण की दृष्टि से न तो निरापद बताया जाता है न ही संक्रामक। आखिर यह रहस्य क्यों?
जवाब -
इस पर विचार संबंधी पुस्तक भेजी जा रही है। (पुस्तक में एचआईवी संक्रमण से बचने के तरीके बताए गए हैं, इसमें चुबंन का जिक्र नहीं है।)

सवाल-
भारत में गर्भधारण व गुप्त रोगों के संक्रमण की दृष्टि से निरोध एवं अन्य माध्यमों की असफलता की कितनी औसत दर है?
जवाब-
इस विषय पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

तो आप भी सोचिए ... देश में एड्स फैलने से रोकने के लिए बनाए गए सर्वोच्च संस्थान को यह पता नहीं है कि निरोध जैसे साधनों की असफलता का प्रतिशत क्या है? फिर भी आप चाहते हैं 
 एक से या अनेक से तो मर्जी आपकी।

Wednesday, January 6, 2010

अमोल आत्रे और रणछोड़दास चांचड़



जी हां, 2009 के आखिर में हिंदी सिनेमा ने देश के युवाओं के लिए ये ही दो नए पात्र गढ़े हैं। दोनों युवा हैं और दोनों अलग अलग शख्सियतों को बयां करके युवाओं को सम्मोहित करने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते। एक को आर. बाल्की नामक निर्माता ने रचा है तो दूसरे को विधु विनोद चोपड़ा ने। एक फिल्म पा का तो दूसरा थ्री इडियट्स का हीरो है। अमोल आत्रे का चोला अभिषेक बच्चन ने पहना है जबकि रणछोड़दास चांचड़ के लबादे में आमिर खान को फिट किया गया है।

अमोल आत्रे देश में पनप रही युवा राजनीति का चेहरा है। वह मीडिया की सड़ांध और राजनीति के गंदगी से मुकाबला करता दिखता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया का चरित्र चित्रण करते हुए वह सरकारी संचार जरिया यानि दूरदर्शन के मार्फत अपनी बात देश भर में पहुंचाता है। वह एक सांसद है और देश की शीघ्र प्रगति चाहता है। उसे अपनी गलतियों जैसे कॉलेज लाइफ में गर्ल फ्रेंड के साथ बरती असावधानी को जगजाहिर करने में भी गुरेज नहीं। वह पिता, पुत्र और पति तीनों रोलों के साथ न्याय की चेष्ठा करता दिखता है। साथ ही जननेता के रूप में भी खुद को पेश कर देता है। हालांकि, अमोल आत्रे देश में चल रही परिवारवाद की राजनीति का मुखड़ा भी है।
रणछोड़दास चांचड़ एक इंजीनियर छात्र है। वह कहता है इंजीनियरिंग मेरा पेशन है। किरदार में भी यह साफ झलकता है। वह मनमौजी किस्म का है और युवाओं को मन में आए वही करो  का संदेश देता है। प्रोफेसरों के अपमान से लेकर रैगिंग लेने वाले सीनियर्स को सबक सिखाने तक के तमाम मसालेदार फार्मूले फिल्म में तय किए उसके चरित्र को मजबूती देते हैं। फिल्म के आखिर में वह भी उसी फंदें में फंसा दिखता है, जिसके निकलने का पूरी फिल्म में कोशिश करता रहता है।
आंत्रे और चांचड़ दोनों ही युवाओं को थिएटर तक खींच लाने के लिए बनाए गए पात्र हैं। एक जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाता है, जबकि दूसरा लापरवाही को जीवन मंत्र की तरह अपनाने की गैर जिम्मेदाराना राहों का पथिक है। यह बात और है कि दोनों ही सितारे अभिनय के स्तर पर न्याय करते हैं, लेकिन सीख किसकी मानी जाए...यह जितना मुश्किल है, उतना ही आसान भी।