जी हां, 2009 के आखिर में हिंदी सिनेमा ने देश के युवाओं के लिए ये ही दो नए पात्र गढ़े हैं। दोनों युवा हैं और दोनों अलग अलग शख्सियतों को बयां करके युवाओं को सम्मोहित करने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते। एक को आर. बाल्की नामक निर्माता ने रचा है तो दूसरे को विधु विनोद चोपड़ा ने। एक फिल्म पा का तो दूसरा थ्री इडियट्स का हीरो है। अमोल आत्रे का चोला अभिषेक बच्चन ने पहना है जबकि रणछोड़दास चांचड़ के लबादे में आमिर खान को फिट किया गया है।
अमोल आत्रे देश में पनप रही युवा राजनीति का चेहरा है। वह मीडिया की सड़ांध और राजनीति के गंदगी से मुकाबला करता दिखता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया का चरित्र चित्रण करते हुए वह सरकारी संचार जरिया यानि दूरदर्शन के मार्फत अपनी बात देश भर में पहुंचाता है। वह एक सांसद है और देश की शीघ्र प्रगति चाहता है। उसे अपनी गलतियों जैसे कॉलेज लाइफ में गर्ल फ्रेंड के साथ बरती असावधानी को जगजाहिर करने में भी गुरेज नहीं। वह पिता, पुत्र और पति तीनों रोलों के साथ न्याय की चेष्ठा करता दिखता है। साथ ही जननेता के रूप में भी खुद को पेश कर देता है। हालांकि, अमोल आत्रे देश में चल रही परिवारवाद की राजनीति का मुखड़ा भी है।
रणछोड़दास चांचड़ एक इंजीनियर छात्र है। वह कहता है इंजीनियरिंग मेरा पेशन है। किरदार में भी यह साफ झलकता है। वह मनमौजी किस्म का है और युवाओं को मन में आए वही करो का संदेश देता है। प्रोफेसरों के अपमान से लेकर रैगिंग लेने वाले सीनियर्स को सबक सिखाने तक के तमाम मसालेदार फार्मूले फिल्म में तय किए उसके चरित्र को मजबूती देते हैं। फिल्म के आखिर में वह भी उसी फंदें में फंसा दिखता है, जिसके निकलने का पूरी फिल्म में कोशिश करता रहता है।
आंत्रे और चांचड़ दोनों ही युवाओं को थिएटर तक खींच लाने के लिए बनाए गए पात्र हैं। एक जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाता है, जबकि दूसरा लापरवाही को जीवन मंत्र की तरह अपनाने की गैर जिम्मेदाराना राहों का पथिक है। यह बात और है कि दोनों ही सितारे अभिनय के स्तर पर न्याय करते हैं, लेकिन सीख किसकी मानी जाए...यह जितना मुश्किल है, उतना ही आसान भी।
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