मैडम के तेवर और चायवाला
‘अरे, अब आएगा मजा। मैडम ने तेवर दिखाना शुरू कर दिए हैं।’ चाय उकालते हुए वह बोला।
मैंने पूछा, ‘कौन सी मैडम, कौन से तेवर और काहे का मजा!’
‘अरे बाबू, शहर में नहीं रहते हो क्या? हमारी मेयर मैडम की बात कर रहा हूं। अभी दो दिन पहले ही उन्होंने अफसरों की लू बांध दी। काम ही नहीं कर रहे थे, अब देखो धमाधम काम होने लगेंगे’, उसने बेहद गर्व से कहा।
‘रहता हूं भाई। मगर मुझे इन बातों में कोई इंटरेस्ट नहीं है। मुझे तो बस अच्छा शहर चाहिए। उसे कौन बनाएगा, ये मैं नहीं जानता हूं। लेकिन हां, यह जरूर है कि इंदौर की बेहतरी के लिए मेयर को आगे आना ही चाहिए। आखिर जनता ने उन्हें बड़ी उम्मीदों से वोट दिए हैं’, मैंने दार्शनिक अंदाज में कमेंट किया।
वह भी तैयार था। बोला, ‘बात तो सही है। मगर मैडम को काम करने ही नहीं दे रहे हैं। वे जो चाहती हैं, कर ही नहीं पा रही हैं। उनकी और उनके लोगों की चल ही नहीं रही है। नगर निगम के निकम्मे उन्हें काम करने से रोक रहे हैं।’
मैंने एक स्पेशल फुल चाय का ऑर्डर देते हुए बात आगे बढ़ाई और कहा, ‘बंधु, काम नहीं करने दे रहे? यह तो बड़ी अजीब बात है। उन्हें जनता ने चुना है और उन्हें काम करने से कोई कैसे रोक सकता है? अफसरों को डांटने-फटकारने की उन्हें जरूरत क्यों पड़ी? अरे, वे रोजमर्रा के कामों में निष्पक्ष और बगैर राजनीतिक नफे-नुकसान की सोचे, बड़ा दिल रखकर काम करें तो आखिर कोई उनकी बात क्यों नहीं मानेगा? और फिर उन्हें तो अपनी बात मनवाना आना ही चाहिए। मैं, और मैं तो क्या, सभी लोग यह भी जानना चाहते हैं कि आखिर मेयर के सिर से पानी ऊपर कैसे चला गया? वे चुप क्यों थीं? उन्हें जो काम पहले दिन से करना था, वह अब क्यों किया?’
मैंने धड़ाधड़ सवाल दागे तो चायवाला थोड़ा ‘हूं’ करके रुका और बोला, ‘हां, कुछ बातें आपकी सही हैं, लेकिन वे घरेलू महिला ठहरीं। संयम से काम ले रही होंगी। शायद अब उन्हें और उनके इर्द-गिर्द रहने वालों को लगने लगा होगा कि शहर को व्यवस्थित करने का सारा के्रडिट अफसर ले रहे हैं, तो भडक़ी होंगी?’
‘अफसर भी तो सरकार के ही हैं। वे काम करें और क्रेडिट लें, तो इसमें बुराई क्या है? अच्छे अफसर हैं कहां और कितने? और फिर निगम में तो और भी मुश्किल है।’ मैंने अफसरों की तरफदारी करते हुए चायवाले को टटोला।
‘अफसरों की महिमा न्यारी है। कभी चुस्त रहते हैं और कभी एक दम सुस्त। हां इंदौर में कुछ दिन से काम दिखा रहे हैं, लेकिन अब नेताओं को तो यही बात अखर जाती है ना। उन्हें लगता है कि लगाम हाथ से फिसल रही है। इसलिए मौका देखते ही अफसरों पर पिल पड़ते हैं।’ वह मेयर से हटकर अब तमाम नेताओं पर आ गया और अफसरों का बचाव करने लगा।
मैं उसके ढुलमुल रवैये से हैरान रह गया और पूछा, ‘भाई, मैं आया था तब तुम मेयर की तरफदारी कर रहे थे और अब कोस रहे हो?’
मुझे चाय का गिलास पकड़ाते हुए बोला, ‘क्या करूं? समझ ही नहीं आ रहा है कि सही क्या है और गलत क्या? असल बात तो यह है कि मैडम की अफसरों पर पकड़ ढीली है और चिंता की बात है कि अफसर यह बात जानने भी लगे हैं। इससे मेरे इंदौर का नुकसान हो रहा है। तालमेल है नहीं और इसी कारण अब तक मेयर कोई बड़ा काम करके दिखा भी नहीं सकीं।’
अब मैं मेयर के समर्थन में उतरा, ‘हां, बहुत बड़ा काम तो कोई दिखता नहीं, लेकिन अभी राजबाड़ा क्षेत्र को स्मार्ट बनाने की कोशिश तो उन्होंने तेज की है।’
वह चाय की तपेली उतार चुका था और कुर्सी पर बैठ अखबार पलट रहा था। मेरी बात सुन बोला, ‘कोशिश तो की है, लेकिन कितने सवाल उठ रहे हैं? ये देखो, अभी तीन-चार दिन पहले स्मार्ट सिटी का मामला हाई कोर्ट चला गया। ऐसा लगता है कि मेयर सिर्फ एक क्षेत्र की हैं, पूरे शहर से उनका कोई लेना-देना नहीं।’
‘ऐसा क्यों बोल रहे हो? उन्हें तो सबने मिलकर चुना है। हर क्षेत्र के लोगों ने उन्हें अच्छे खासे वोट दिए हैं।’ मैंने चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए कहा।
‘यही तो याद दिला रहा हूं। सिस्टम पर पकड़ बनाएं और पूरे शहर का ख्याल रखें। मेयर का काम भी तो यही होता है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे इंदौर चार की विधायक नहीं, इंदौर शहर की मेयर हैं। सबका ख्याल, सबका विकास करेंगी तभी बात बनेगी। बस भडक़ने, डांटने, गुस्सा होने से काम नहीं चलेगा। इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है। भ्रष्ट और पस्त सिस्टम को सुधारेंगी, तभी बात बनेगी।’ उसने बीस के नोट में से पांच रुपए लौटाते हुए चर्चा समाप्त की।
* विजय चौधरी