Sunday, October 3, 2010

इंदौर का अंशुल भारतीय शर्लक होम्स

- 42 जटिल  अंतर्राष्ट्रीय क्राइम फाइल्स निपटाकर दुनियाभर कर दिया अचंभित
- अमेरिकन क्राइम इन्वेस्टिगेशन सेल ने किया नामित 



यह स्कॉटिश लेखक आर्थर डॉयल के काल्पनिक जासूसी पात्र शर्लक होम्स की कहानी नहीं है, जो अपने तौर तरीकों के जरिए अपराधियों को गिरफ्त में ले लिया करता था। यह इंदौर के 23 वर्षीय एक नौजवान की हकीकत है। वह जेनेटिक साइंस का छात्र है और भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उसे ओजोन मैन ऑफ द वर्ल्ड  घोषित किया है। उसने भारत में ही रहकर कुछ ही दिनों में 42 अनसुलझे अंतरराष्टरीय अपराधों को सुलझा दिया है। ये अपराध बरसों पुराने थे और कई ख्यात अपराध विशेषज्ञ, पुलिस अधिकारी और फोरेंसिक मेडिसिन के वैज्ञानिक भी इनके आगे हार गए थे। उसकी अविश्वसनीय बुद्धि से अचंभित होकर दुनियाभर से भारत की राष्टï्रपति को बधाई पत्र मिले हैं। इतना ही नहीं उसे अमेरिका ने तो अपनी फोरेंसिक रिसर्च काउंसिल के क्राइम इन्वेस्टिगेशन सेल में नामित तक कर लिया है। 

बात इंदौर के अंशुल जैन की है। कहने को तो वे डब्ल्यूएचओ के डीओई में बतौर जूनियर साइंटिस्ट कार्य कर रहे हैं, लेकिन जेनेटिक साइंस के क्षेत्र में उनकी प्रतिभा का लोहा पूरी दुनिया के जेनेटिक साइंटिस्ट मान चुके हैं। हाल ही में भारत की राष्टï्रपति प्रतिभादेवी सिंह पाटिल ने अंशुल की उपलब्धियों से अभिभूत होकर एक बधाई पत्र भेजा है। मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम ने भी एक व्यक्तिगत पत्र लिखकर अंशुल की इस उपलब्धि को  उत्कृष्ट  बताया है। सुरक्षा के मद्देनजर स्थान की गोपनीयता की शर्त पर अंशुल से 'पत्रिका  से विशेष चर्चा की। उन्होंने बताया कुछ नया करने की मेरी सोच ने ही इस मुकाम तक पहुंचाया है।

यूं सुलझाई क्राइम फाइल्स
अंशुल जेनेटिक साइंटिस्ट हैं और उनका नाता मानव रक्त में मौजूद गुणसूत्रों व डीएनए से है। उन्होंने रक्त और जीन्स के नमूनों के आधार पर ही अपराधियों को बेनकाब किया है। वे बताते हैं यह बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और इसमें कई बार कई-कई दिन लग जाते हैं।

हर रात दो घंटे की मशक्कत से मिला मुकाम
अंशुल इंदौर के गुजराती साइंस स्कूल के छात्र रहे हैं। 12 वीं के बाद वर्ष 2006 में उन्होंने मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए 15 परीक्षाएं दी और 12 की मेरिट में स्थान बनाया। वे बताते हैं मैं डॉक्टर बनकर पहले ही खोजी जा चुकी दवाइयों के आधार पर इलाज करके रोजी-रोटी नहीं कमाना चाहता था, इसलिए इस चयन से संतुष्ट नहीं हुआ और इंटरनेट पर शोध की दुनिया को खंगालने लगा। इंटरनेट सर्फिंग के दौरान ही मेरा जैनेटिक साइंस की ओर झुकाव बढ़ा। हर रात दो घंटे में इस विषय पर इंटरनेट पर जाता था और एक दिन ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी की ऑन लाइन सेवा में चला गया। वहां जैनेटिक्स से जुड़ी पहेली थी। उसे हल किया तो मुझे ऑन लाइन परीक्षा के लिए आमंत्रित किया गया। पौन घंटे बाद परीक्षा हुई और मैं चयनित हो गया। बस तभी से जैनेटिक्स मेरी दुनिया बन गया है।

परिवार की अहम भूमिका
अंशुल बताते हैं मेरे ताऊजी डॉ. सुरेंद्र जैन ही मेरे प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं। बाद में पूर्व राष्टï्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कमाल ने मुझे प्रेरित किया। मेरी मां कल्पना जैन, पिता डी. जैन, बड़े भाई डॉ. अंकुर जैन ने भी हरकदम पर मेरी हौंसला अफजाई की है, यही वजह है कि मैं आगे बढ़ रहा हूं।
 
'अंशुल, भारत और दुनिया के दूसरे देशों की ओर से मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहती हूं। मेरी इच्छा है कि मैं आपसे मुलाकात करूं।
- प्रतिभा देवीसिंह पाटिल,
राष्ट्रपति (अंशुल को लिखे पत्र से)

'अंशुल, आपकी उपलब्धि न केवल बधाई के योग्य है, बल्कि यह अविश्वसनीय है। इससे भारत के इतिहास में आपका नाम दर्ज हो गया है।
- एपीजे अब्दुल कलाम, पूर्व राष्ट्रपति (अंशुल को लिखे पत्र से)

'भारत में शोध को बढ़ावा नहीं दिया जाता, इसीलिए यहां वैज्ञानिकों की पूछ परख नहीं है। सरकार को इस दिशा में ध्यान देना चाहिए। - अंशुल जैन, साइंटिस्ट, जैनेटिक साइंस




 पूरी दुनिया को बदल डालेगा जेनेटिक साइंस
- जेनेटिक साइंटिस्ट अंशुल जैन से विशेष भेंट

चॉकलेटी हीरो जैसे नैन-नक्श वाले 23 वर्षीय अंशुल को देखकर कोई नहीं कह सकता कि उनकी अद्भुत बुद्धिमत्ता के कायल होकर चार वर्ष पहले ही भारत के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें 'ओजोन मैन ऑफ द वर्ल्ड घोषित कर दिया था। तब से आज तक वे जैनेटिक साइंस के क्षेत्र में शोधरत हैं। 'पत्रिका  से विशेष भेंट में उन्होंने बताया जेनेटिक साइंस ऐसा क्षेत्र है, जो कुछ ही वर्षों में पूरी दुनिया को बदल देगा। अभी तो इस विधा में कुछ हुआ ही नहीं है।

प्र- आपको अमेरिका के फोरेंसिक रिसर्च काउंसिल के क्राइम इन्वेस्टिगेशन सेल में नामित क्यों किया गया है?
उ-  जैनेटिक साइंस के क्षेत्र में शोधरत होने के कारण मेरे पास 42 पुराने अपराध सुलझाने के लिए रक्त के नमूने आए थे। मैंने वैज्ञानिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करके इन्हें निपटाया। इसी को देखते हुए अमेरिकन फोरेंसिक रिसर्च काउंसिल ने यह कदम उठाया।

प्र- आपकी सफलता का क्या राज है?
उ- बचपन से ही कुछ नया करने का सोच था। 12 वीं के बाद मैंने चिकित्सा के क्षेत्र में जाने के लिए 15 प्रवेश परीक्षाएं दी थीं और इनमें से 12 में मुझे मेरिट में स्थान मिला था, लेकिन मैं नहीं चाहता था कि डॉक्टर बनकर पूर्व में की गई खोजों के आधार पर लोगों का उपचार करूं। बस मुझे जुनून सवार था कि शोध करना है और मैं आगे बढ़ता चला गया।

प्र- आपके प्रेरणास्त्रोत कौन हैं? 
उ- मेरे ताऊजी डॉ. सुरेंद्र जैन। उन्हें देखकर ही मुझे राह मिली। बाद में मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कमाल ने मुझे राह दिखाई। मां कल्पना जैन, पिता डी. जैन, बड़े भाई डॉ. अंकुर जैन ने भी हरकदम पर मेरी हौंसला अफजाई की।

प्र- जैनेटिक साइंस की ओर कैसे मुड़े?
उ- मैंने इंदौर के गुजराती साइंस कॉलेज से 12 वीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद इंटरनेट सर्फिंग के दौरान ही जैनेटिक साइंस की ओर झुकाव बढ़ा। हर रात दो घंटे में इस विषय पर नेट पर जाता था और एक दिन ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी की ऑन लाइन सेवा में चला गया। वहां जैनेटिक्स से जुड़ी पहेली थी। उसे हल किया तो मुझे ऑन लाइन परीक्षा के लिए आमंत्रित किया गया। पौन घंटे बाद परीक्षा हुई और मैं चयनित हो गया। बस तभी से जैनेटिक्स मेरी दुनिया बन गया है।


प्र- जैनेटिक साइंस के क्षेत्र में अभी आप क्या काम रहे हैं?
उ- यह एक गोपनीय मसला है, परंतु इतना जरूर है कि इस क्षेत्र में अभी तो कुछ हुआ ही नहीं है। मनुष्य के बारे में जो भी आप सोच सकते हैं, उसे जैनेटिक्स से हासिल किया जा सकता है। कुछ ही वर्षों में इससे पूरी दुनिया में तब्दीली हो जाएगी।

प्र- इस दिशा में भारत सरकार के प्रयासों के बारे में बताएं?
उ- सबसे बड़ा प्रयास यह है कि मुझे देश में ही रहकर काम करने का मौका मिल गया। वैसे, भारत में शोध को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है, यही वजह है कि छात्र इससे दूर होते जा रहे हैं। यहां लोग उन बातों को शोध बता रहे हैं, जो पहले ही खोजा जा चुका है।

प्र- भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारें में आपकी क्या राय है?
उ- जब तक इसे पूरी तरह बदला नहीं जाएगा, तब तक हम दुनिया के साथ खड़े नहीं हो सकेंगे। वर्तमान में स्कूल-कॉलेज व्यापार का केंद्र बने हुए हैं। जहां से ज्ञान गंगा बहना चाहिए, वहां से गंदे नाले बह रहे हैं।

प्र- भारतीय राजनैतिक व्यवस्था पर आपकी क्या राय है?
उ- कानून बनाने में नेताओं को मास्टर्स डिग्री हासिल है और कानून तोडऩे में पीएचडी। फौरी तौर पर कहूं तो नेताओं को देश की चिंता ही नहीं है। वे न तो यह समझने को तैयार है कि दुनिया बदल रही है और न ही यह कि देश की प्रतिभाएं बोथरी हो रही हैं। इससे अधिक तो क्या कहूं?

प्र- आपको अत्यधिक सुरक्षा प्राप्त है, क्या इससे असहज महसूस नहीं करते हैं?
उ- जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मैं सुरक्षा को लेकर चिंतित नहीं हूं। मैं अपने और अपने पारिवारिक लोगों के बीच में हमेशा खुश रहता हूं।

प्र- अभी दिन में आप कितने घंटे काम करते हैं?
उ- उसकी कोई सीमा नहीं है। कई बार तो लगातार दो-दो रात काम होता है और कई बार कोई काम नहीं। दरअसल, यह क्षेत्र जुनून से भरा हुआ है और मुझे तो इसी में डूबे रहने में मजा भी आता है।

प्र- आपका सपना?
उ- दुनिया के लोगों को बीमारियों से बचाना। कई नई-नई बीमारियों आ रही हैं और इनसे लडऩे के तरीके भी नए ढूंढना होंगे। हम लोग इन्हीं पर काम कर रहे हैं। मानवता को महफूज रखना ही जीवन का उद्देश्य है। एक खास बात मैं जैन हूं और जैन धर्म के सिद्धांतों की कसौटी पर ही दुनिया की वैज्ञानिक प्रगति को देख रहा हूं। 
 
(नोट: अंशुल को  अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा हासिल है और इसी के मद्देनजर उनके मौजूदा पते और शहर की जानकारी को छुपाया जा रहा है। जो क्राइम फाइल्स उन्होंने सुलझाई हैं, उनके बारे में भी जिक्र नहीं किया गया है।) 

पत्रिका : २-३ अक्टूबर २०१० 

Wednesday, August 25, 2010

मध्यप्रदेश में व्हीसल ब्लोअर पर सरकारी तंत्र का हमला

Dr. Aanad Rai


व्हीसल ब्लोअर यानी भ्रष्टाचार या गड़बडिय़ों को देखकर सरकार को सचेत करने वाला बंदा। लुप्त होती जा रही 'व्हीसल ब्लोअरÓ की इस प्रजाति को बचाने के लिए भारत सरकार संजिदा दिखती है और यही वजह है कि एक ऐसे कानून का मसौदा तैयार किया जा चुका है जिससे यह 'कौमÓ संरक्षित रहेगी। परंतु, मध्यप्रदेश में यह कौम खतरे में है। 'बीमारूÓ की श्रेणी से उबर नहीं पा रहा मध्यप्रदेश 'संगठित और सरकारी भ्रष्टाचारÓ की गिरफ्त में है। ब्यूरोक्रेट जोशी दंपत्ति के पास से मिली अरबों की चल-अचल संपत्ति से इस धारणा पर मुहर भी लगी है। बावजूद इसके राज्य में 'सचेतकÓ को सुरक्षित रखने की कोई कोशिश नजर नहीं आती।

ताजा उदाहरण, एक सरकारी डॉक्टर का है, जिसका नाम आनंद राय है। वे 21 अगस्त की रात तक इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज के नेत्र रोग विभाग में सिनीयर रेसीडेंट थे। उस रात एक बजे तक चिकित्सा शिक्षा विभाग भोपाल और कॉलेज डीन के कक्ष में समानांतर बैठकें होती रहीं। आखिर में हुआ कि राज्य में जारी जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल को उकसाने के आरोप में डॉ. राय को बर्खास्त कर दिया जाए। आरोप का आधार एक खबर को बनाया गया, जिसमें डॉ. राय ने इंदौर जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन का संरक्षक होने के नाते कहा था 'मैं जूडॉ की मांगों का नैतिक समर्थन करता हूं।Ó 

सवाल है, फिर डॉ. राय को बगैर नोटिस दिए, देर रात तक बैठक करके ताबड़तोड़ बाहर क्यों किया गया? क्या  चिकित्सा शिक्षा विभाग या कॉलेज प्रबंधन की डॉ. राय से जाति दुश्मनी है? क्या डॉ. राय के कहने भर से राज्यभर के जूनियर डॉक्टर हड़ताल कर रहे हैं? क्या डॉ. राय का एक बयान ही उनकी बर्खास्तगी का कारण है या बर्खास्तगी की पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार थी ? क्या डॉ. राय व्हिसल ब्लोअर हैं, इसलिए उन्हें सिस्टम से बाहर कर दिया गया?

सवालों का जवाब तलाशने के लिए फ्लैश बैक में जाना होगा। 15 अक्टूबर 2007 को मप्र हाईकोर्ट जस्टिस आरएस झा ने चिकित्सा शिक्षा विभाग को अंतरिम आदेश दिया कि एमजीएम मेडिकल कॉलेज के नेत्र रोग विभाग में सिनीयर रेसीडेंट के पद पर भर्ती के लिए डॉ. आनंद राय की अर्जी भी मंजूर की जाए। इसके बाद ही उन्हें राहत मिली। पहले विभाग का तर्क था कि डॉ. राय ने पीजी डिप्लोमा किया है, इसलिए उन्हें पात्रता नहीं है। डॉ. राय ने भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के दस्तावेजों के आधार पर कोर्ट में केस दायर किया था। बहरहाल, साक्षात्कार में योग्यता के आधार पर उन्हें चयनित कर लिया गया। इसके बाद यह कहकर नियुक्ति को रोक दिया गया कि याचिका हाईकोर्ट में खत्म नहीं हुई है। डॉ. राय फिर से जबलपुर हाईकोर्ट की शरण में गए। जस्टिस दीपक मिश्रा व आरके गुप्ता की युगलपीठ ने आदेश दिया कि डॉ. राय की याचिका समाप्त हो गई है। मजबूरन, विभाग को 'मुंह बिगाड़करÓ डॉ. राय को नौकरी पर रखा।

डॉ. राय वर्ष 2005 से 07 तक पीजी छात्र थे और तब जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन इंदौर के अध्यक्ष, प्रदेश के महासचिव और प्रवक्ता रहे। उनके दौर में भी हड़तालें हुई और वे सरकार के निशाने पर आए गए। सीनियर रेसीडेंट बनने के बाद उन्हें सिस्टम की खामियां महसूस हुई। उन्हें लगा कि मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में हड़ताल के दौरान भी व्यवस्थाएं माकूल रखने के लिए एमसीआई मापदंड के मुताबिक हर कॉलेज में सीनियर व जूनियर रेसीडेंट की पर्याप्त भर्ती की जाना चाहिए। इसे लेकर उन्होंने 'सूचना का अधिकारÓ का हथियार अपनाया और केंद्र व राज्य सरकार से हजारों जानकारियां बटौरी। इस दौरान ही उनकी विभाग के संचालक, प्रमुख सचिव और मंत्री से वैचारिक टकराहट शुरू हुई। उनके तर्कों को कोई मानने को तैयार नहीं हुआ तो वे जबलपुर हाईकोर्ट पहुंच गए। वहां 6302/2010 नंबर से एक याचिका दायर की, जिसमें रेसीडेंट डॉक्टरों की संख्या, अधिकारों और नियमित नियुक्ति के मामले उठाए गए हैं। याचिका में हाईकोर्ट से दो बार विभागीय अधिकारियों को दो बार नोटिस भी हो भी हो चुके हैं। यह और बात है कि सरकार ने अब तक जवाब नहीं दिया है।

तीन वर्ष में ही डॉ. राय एक व्हिसल ब्लोअर के रूप में उभरे हैं। वे अब तक चिकित्सा शिक्षा विभाग के डॉक्टरों की चल-अचल संपत्ति, राज्य के मेडिकल कॉलेजों की एमसीआई मान्यता, राज्य में स्वास्थ्य नीति की कमी, मेडिकल यूनिवर्सिटी की गैरमौजूदगी के साथ ही सीनियर डॉक्टरों की प्रायवेट प्रेक्टिस, ड्यूटी ओवर्स में डॉक्टरों का ड्यूटी से गायब रहना, सरकारी अस्पतालों में गरीब मरीजों की अनदेखी, मरीजों को प्रायवेट लेबोरेटरी व अस्पतालों में रैफर करना, ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में पसरा भ्रष्टाचार जैसे कई मसले उठा चुके हैं। उनका हथियार सूचना का अधिकार रहा है।

जुलाई 2010 में डॉ. आनंद राय ने बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) का खुलासा किया। इसके लिए उन्होंने मीडिया और विधायकों को जरिया बनाया। मीडिया ने खबरें प्रकाशित की और विधायकों ने विधानसभा में सरकार से सवाल पूछे। करोड़ों अरबों के ड्रग ट्रायल के खेल की पोल खुलने से पूरे राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं और डॉक्टरों के 'नोबलÓ चरित्र पर प्रश्नचिह्न उठ खड़ा हुआ। सरकार अनुत्तरित रही और राज्य के आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो व लोकायुक्त ने ट्रायल में लिप्त कुछ नामचीन डॉक्टरों की जांच शुरू कर दी। जैसा कि राज्य में होता आया है, सरकार ने लीपापोती शुरू कर दी। मरीजों और सरकार की आंखों में साफ-साफ धूल छोंकने वाले डॉक्टरों को 'शोधार्थीÓ (रिसर्चर) बताया गया। हालांकि, सरकार का यह कृत्य जनता को हजम नहीं हो रहा है। डॉ. राय स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नाम के एक संगठन से भी जुड़े हैं। इसी संगठन के जरिए उन्होंने 'ट्रायलÓ मुद्दे को उठाया है।

ड्रग ट्रायल के बाद से ही पूरा सरकारी तंत्र डॉ. राय को 'निपटानेÓ की जोड़तोड़ में था। अगस्त में शुरू हुई जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल में तंत्र कामयाब हो गया। डॉ. राय इंदौर जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन के संरक्षक हैं और इसी नाते हड़ताल के दौरान उन्होंने एक-दो बार मीडिया में कहा था 'मैं जूडॉ की मांगों का नैतिक समर्थन करता हूं।Ó बस फिर क्या था, इस बयान को आधार बनाकर उन्हें 'बाहरÓ का रास्ता दिखा दिया। हद तो यह हो गई कि उनकी बर्खास्तगी को एक विज्ञापन के जरिए प्रमुख अखबारों में प्रकाशित करवाया गया, जिसमें संभवत: कुछ लाख रुपए खर्च हुए होंगे। 

 प्राकृतिक न्याय के तहत डॉ. राय ने फिलहाल कॉलेज को एक नोटिस दिया है, निश्चत तौर पर इसका उन्हें इसका नकारात्मक जवाब मिलेगा। इसके बाद ही वे कोर्ट की दहलीज पर जाकर न्याय मांग सकते हैं। खुशी इस बात की है कि डॉ. राय निराश नहीं हुए हैं। उनका कहना है मुझे सिर्फ और सिर्फ ड्रग ट्रायल खुलासे के कारण हटाया गया है। सरकार संदेश देना चाहती है कि सरकारी तंत्र के भीतर जो व्यक्ति 'आवाजÓ उठाऐगा, उसे इसी तरह दबा दिया जाएगा। मैं इससे घबराने वाला नहीं हूं, न्याय पाकर ही दम लूंगा।  

इस जिंदा उदाहरण से साबित होता है ...
मध्यप्रदेश में व्हीसल ब्लोअर सरकारी तंत्र के निशाने पर हैं।

Saturday, April 3, 2010

तो क्या सो रहे थे कोर्ट?

कानून की देवी की आंखों पर पट्टी है, फिर भी कहा जाता है कि वह सबके साथ न्याय करती है। पर ये क्या ... मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के बारे में तो यह देवी पिछड़ गई। देवी की देखादेखी पूरी की पूरी कोर्टों ने भी आंखों पर पट्टी बांध ली। पट्टी 12 बरस से पड़ी हुई है। हालांकि, पट्टी तो बहुत पहले ही पड़ी थी, लेकिन 1993 में इंदौर के एक व्यक्ति ने इस पट्टी को खोल दिया था।
इस व्यक्ति का नाम सत्यपाल आनंद है, जो बीते 30 बरस से जनहित के मुद्दों पर लगातार कोर्टों में याचिकाएं दाखिल कर रहा है। आनंद ने 1994 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लगाकर मांग की थी कि संविधान लागू होते वक्त अनुच्छेद 45 में दर्ज मौलिक अधिकार में 10 वर्ष की समय सीमा तय करके कहा गया था कि 14 वर्ष से कम आयु के हर बच्चे को देश में अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा दी जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। बावजूद इसके न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका ने कभी इस अधिकार को अमल में लाने की कोशिश नहीं की। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष आनंद ने स्वयं अपने केस की दलीलें दी। इसके लिए देश के सभी राज्यों के एडवोकेट जरनल को सुप्रीम कोर्ट में हाजिर होना पड़ा। 23 मार्च 1998 को कोर्ट ने आनंद के तर्कों से संतुष्ट होते हुए फैसला दिया कि शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य घोषित किया जाए। इसके लिए हर राज्य में अलग से याचिकाएं दाखिल करने की बात भी इस आदेश में दी गई।
आनंद ने इसके बाद आधा दर्जन राज्यों में स्वयं याचिका दाखिल करके मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा लागू करने की मांग की। हालांकि, किसी कोर्ट ने उनकी याचिकाओं को वह सम्मान नहीं दिया, जो कि दिया जाना था।
आनंद ने एक अप्रैल को एक बार फिर से पुरानी बातों को ताजा करते हुए एक ïजनहित याचिका मप्र हाईकोर्ट की इंदौर खंडपीठ में दाखिल की है। इसमें उन्होंने अपने पुराने अनुभवों को ध्यान देते हुए कहा है कि न्यायपालिका चाहती तो कानून बहुत पहले ही अमल में आ चुका होता। अफसोस, देश के करोड़ों बच्चों के साथ बरसों तक अन्याय होता रहा और कोर्टों ने कोई कार्रवाई नहीं की। नई जनहित याचिका में उन्होंने तर्क दिया है कि देश के सिरमौर शासकों ने कभी नहीं चाहा कि देश का हर बच्चा शिक्षित हो। यदि वे ऐसा चाहते तो उनकी गद्दी खतरे में होती। अभी भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जो भाषण दे रहे हैं, उसमें कोई सच्चाई नहीं है। वे कह रहे हैं कि इस कानून से देश के करोड़ों बच्चों को न्याय मिलेगा और वे स्कूलों में दाखिल हो सकेंगे। आनंद ने कहा है कि प्रधानमंत्री की मंशा वास्तव में कानून को ईमानदारी से लागू करने की होती तो इसके लिए विशेष कोष की स्थापना की जाती। यह भी तय किया जाता कि अब देश में कोई भी बच्चा मजदूरी नहीं करेगा। परंतु न तो स्कूलों की हालत सुधारी गई है और न ही बच्चों की।
आनंद को उम्मीद है कि उनकी जनहित याचिका पर शीघ्र ही सुनवाई होगी और प्रधानमंत्री, केबिनेट सचिव, मप्र के मुख्यमंत्री और मुख्य सचिïव को कोर्ट में तलब किया जाएगा। हालांकि, आनंद कहते हैं यह याचिका यहां खारिज हो गई तो वे इसे सुप्रीम कोर्ट ले जाएंगे, ताकि पूरे देश को पता चल सके कि देश की कोर्टें सो रही हैं...।

Monday, March 29, 2010

वो दो घंटे पूरी जिंदगी पर भारी रहे...

 यह पोस्ट उस शख्स के नाम जिनकी प्रजाति अब दुनिया में खत्म होने को है। शख्स उज्जैन का है और जब इंदौर आया तो मुलाकात का मौका मिला। उससे हुई बातचीत को लफ्ज दिए हैं। गौर करें...
  पहले तो मेरा परिचय दे दूं। मेरा नाम शहजाद है। मेरी उम्र यही कोई 25-26 होगी। उज्जैन न्यू महाकाल रोड की गली नंबर सात के कोट मोहल्ला में 600 रुपए भाड़े के एक कमरे वाले मकान में रहता हूं। साथ में पत्नी फरिदा, दो बेटियां व एक बेटा भी है। उज्जैन की सड़कों पर दौडऩे वाले मेरे ऑटो का नंबर एमपी-09, केबी-4274 है। इसके किराए के हर दिन साठ रुपए चुकाता हूं।
अब बात उस लम्हे की जब अल्लाह ने मेरा इम्तेहान लिया। गुरुवार (25/03/10)  सुबह जब घड़ी में आठ बज रहे थे, तब मैं ऑटो की सफाई में इस उम्मीद से मशगूल था कि आज ज्यादा सवारियां मिलेगी। तभी ऑटो में एक बेग दिखा। चौंका और इसे खोला। इसमें सोने के गहने देखे तो फिर से चौंका। गहने ही गहने दिख रहे थे। चौंकने के साथ ही घबरा भी गया। बेग उठाया और पास ही रहने वाले ससुर चांद खां के पास भागा। हांफते-हांफते उन्हें बताया कि कोई सवारी गाड़ी में जेवरात का बेग भूल गई है। हिम्मत बंधाई। मैंने कहा यह पुलिस को दे दें, ताकि जिसका हो उसे मिल जाए। पता नहीं उस बेचारे का क्या हाल हो रहा होगा। उस वक्त मुझे कुरआन की वह आयतें याद आ गईं, जिसमें खुदा का हुक्म है कि हराम की कमाई खाना गुनाह है। जो सामान मुझे मिला, वह किसी की अमानत थी और इस्लाम अमानत में खयानत की इजाजत नहीं देता।
सोने से भरा बेग पुलिस के हाथों तक पहुंचाने में करीब दो घंटे का वक्त लगा। ये दो घंटे पूरे जीवन पर भारी रहे। इस दौरान मैंने न जाने कितनी जिंदगियां जी ली। जब सवारी नहीं मिलती है और शाम को खाली हाथ घर लौटता हूं तो अल्लाह की तंगदिली के जो ख्याल आते हैं, वे भी ध्यान आए। छह साल की शाईना, चार की तरन्नुम और दो वर्ष के अयान के चेहरे दिलो-दिमाग में छाने लगे। उन्हें पढ़ा-लिखाकर काबिल जो बनाना है। वह शिक्षा उन्हें दिलाना है, जो मैं नहीं पा सका। फरिदा से किया गहनों का वादा भी याद भी आया। पिता, जिन्हें टेलरिंग के पेश ने जुड़े लोग अब्दुल सत्तार सफारी स्पेशलिस्ट के नाम से जानते हैं, के बारे में सोचा, क्या वे बुढ़ापे में भी आंखे दुखा-दुखाकर सिलाई करते रहेंगे। और भी न जाने क्या-क्या था, जो मन में आया। सारी बातों पर भारी थे बस दो लफ्ज ईमान या हराम। मैंने ईमान को चुना। पुलिस के पास पहुंचे तो पता चला कि गहने 32 लाख रुपए के हैं।
आज मन पर कोई बोझ या वजन नहीं है। गहने छुपा लेता तो हराम की कमाई से घर के हालात बदल लेता, लेकिन कब तक, कभी न कभी तो पुलिस को पता चलता। तब मैं जेल में होता और पूरा परिवार सड़क पर। जो हुआ अ'छा ही हुआ। गहने वाले भैय्या ने एक लाख रुपए के इनाम की जो घोषणा की है, उससे अब एक नया सीएनजी ऑटो रिक्शा खरीदूंगा, ताकि रोज का भाड़ा नहीं देना पड़े। उम्मीद है, अल्लाह मेरा साथ देता रहेगा। ऑटो से होने वाली ईमान की कमाई से ही मैं एक दिन बड़ा आदमी बनूंगा। ईमानदारी से मेरा और मेरे परिवार का सिर जिस तरह फक्र से ऊंचा हुआ है, मैं तो चाहता हूं सारी दुनिया को ईमानदारी से मिलने वाले सकून और शांति का अनुभव हो। 
चलता हूं क्योंकि मुझे ऑटो चलाने जाना है...सवारियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाना है...वे चैन से पहुंचेंगे तो ही मुझे भी चैन मिलेगा।
(बकलम विजय चौधरी)

Sunday, January 24, 2010

मूंगफली वाले को बाहर फिकवा दूंगा!


यह एक ऐसे बुजुर्ग व लब्ध प्रतिष्ठित कवि का कथन है, जो खरी-खरी लिखते हैं और फिर उसे सुनाते भी हैं। बीती रात वे इंदौर के गांधी हाल में बने एक मंच पर थे। कविता कहने से पहले ही उन्होंने सभा में बैठे लोगों के बीच मूंगफली बेचने वाले को डपटते हुए यहां तक कह डाला कि जब हम एक मूंगफली वाले से नहीं निपट सकते, तो पाकिस्तान से भला कैसे निपटेंगे। हुआ भी ऐसा ही, उनकी डपट के बाद भी मूंगफली वाला मजे से काम में जुटा रहा। थोड़ी देर बाद वे फिर बिगड़े और 1000 प्रतिशत राजनीति से नाता रखने वाले कवि महोदय ने कह ही डाला 'मूंगफली वाले को बाहर फिंकवा दूंगा...चौंकिए मत मैं ऐसा कर चुका हूं। जब उन्हें अहसास हुआ कि कुछ ज्यादा डोज दे दिया, तो बात संभालते हुए कहा 'वह भी क्या करे, उसके पास भी पेट है। मंच सेवा-सुरभि, जिला प्रशासन, नगर पालिक निगम और इंदौर विकास प्राधिकरण का था। गणतंत्र दिवस के मौके पर छह कवियों को जुटाया गया। बालकवि बैरागी ने मूंगफली वाले के जरिए व्यवस्था पर गुस्सा उतारते हुए 'मैं मरूंगा नहीं, क्योंकि मैं ऐसा वैसा कुछ करूंगा नहीं  जैसी गंभीर रचना सुनाई। पाठ करने से पहले उन्होंने कह दिया मुझे ताली नहीं चाहिए। उधर, अशोक चक्रधर ने तालियों को लेकर पाकिस्तान की एक यात्रा का जिक्र कर दिया और अपने खाते में तालियां जमा कर ली। बैरागी ने चक्रधर की तारीफ करते हुए इंटरनेट में हिंदी का ठेर सारा श्रेय भी उनकी झोली में डाल दिया। चक्रधर ने भी तारीफ मंजूर करते हुए बताया 'सेव के लिए पहले 'रक्षा करें प्रचलित था, इसे 'सहेजें मैंने ही करवाया, कह दिया।
रतलाम के अजहर हाशमी ने देशभक्ति के तराने सुनाए तो श्याम अंगारा ने अपनी रचनाओं से काव्य मंच का आगाज किया। शैलेष लोढ़ा देर से आए लेकिन उन्हें सुनने के लिए लोग जुटे रहे। चूंकि वे कवि से अधिक अब तारक मेहता का उल्टा चश्मा से प्रसिद्ध हो चुके हैं। जो भी हो, एक कवि के लिए प्रसिद्ध ही सबकुछ है।
किरकिरी मंच पर पहुंचे इंदौरियों ने ही की। संचालन की ठिली डोर थामने वाले प्रो. राजीव शर्मा ने तीन चूहों का घटिया चुटकुला सुनाकर पंचम की फेल के लोगों का भद्दा मजाक उड़ाया। हुटिंग हुई तो बीच में एक दफा उन्हें कहना पड़ा, मैं आपके बीच तीस-चालीस सेकंड ही रहूंगा। संजय पटेल भी बीच में एकेवीएन के एक अफसर को मंच पर बुलाने के बहाने चढ़े और दस मिनट खराब कर गए। महापौर कृष्णमुरारी मोघे आयोजक होने के बावजूद काव्य पाठ शुरू होने के बाद आए और मंच पर चढ़कर स्वागत सत्कार टाइप का कृत्य कर गए।
खैर, बैरागी ने भवानीप्रसाद मिश्र और कन्हैयालाल सेठिया के दो संस्मरण सुनाकर हौंसला बढ़ाया। मिश्र ने कहा था आलोचकों के स्मारक नहीं बनते, इसलिए उनकी परवाह नहीं करना चाहिए, जबकि सेठिया ने लघुकथा में मिट्टी के घड़े को पीतल के घड़े से इसलिए बेहतर बताया था, क्योंकि वह पानी को अपने शरीर में उतार लेता है। चक्रधर और बैरागी दोनों ने ही चिंता जताई कि कवि सम्मेलनों में महिलाओं की उपस्थिति चिंता का कारण रहा है, क्योंकि महिला का उपहास धड़ल्ले से हो रहा है।

Wednesday, January 13, 2010

विवेकानंदजी, जय श्रीराम


कल सुबह रजाई में था तभी बाहर से ढोल-बाजों की आवाजें गूंजी। नींद से उठकर खिड़की से झांका। कुछ स्कूली छात्र-छात्राएं जुलूस के रूप में फैरी निकाल रहे थे। अवसर था युवा दिवस, जो विवेकानंद जयंती पर मनाया जाता है। खुशी हुई, इस बहाने ही सही लेकिन बच्चे विवेकानंद को याद कर रहे हैं। अलसाते हुए फिर रजाई में घुसने ही वाला था कि नारा गूंजा 'जय श्रीराम...जय-जय श्रीराम। मैं चौंका कि यह क्या हो गया। फिर झांका तो देखा पीछे आने वाले बच्चों का सरस्वती शिशु मंदिर के एक अध्यापक नारे लगवा रहे थे। छात्र-छात्राएं हाथ ऊंचे कर-करके समर्थन भी दे रहे थे। छात्राओं के गले में केसरिया दुपट्टा भी डला था। नारे लगते काफिले का समापन एक झांकी से हुआ। इसमें तीन बच्चे एक झोपड़ी में राम-लक्ष्मण-सीता बनकर बैठे थे। चूंकि ठंड अधिक थी, इसलिए सभी ने टोपे पहने थे। साथ ही नुक्ती भी खा रहे थे।
तो, बैचेनी के साथ युवा दिवस की शुरुआत हुई। अखबार उठाए तो मप्र सरकार के विज्ञापन दिखे। सभी सरकारी स्कूलों में सूर्य नमस्कार का ऐलान किया गया था। ऐसा लगा मानो किसी योग विद्वान का जन्मदिन मनाया जा रहा हो। खैर, बच्चों ने शिक्षकों के साथ सरकारी आदेश का पालन किया। चूंकि रात में बारिश हुई थी, इसलिए मैदान से सूर्य के नमस्कार की संभावना तो कम ही थी। आदेश था, इसलिए कहीं बरामदे में तो कहीं हॉल में प्रतीक के रुप में सूर्य को नमन दिया। दफ्तर पहुंचा तो फोटो देखा। एक स्कूल में महापौर कुछ बच्चों के साथ नमस्कार कर रहे थे। बच्चे शर्ट-पेंट में थे, जबकि महापौर ठंड से बचने का पूरा प्रबंध करके आए थे, यानी जर्सी वगैर शरीर पर डाल रखी थी। 
इस तरह से विवेकानंद के मायने बदल रहे हैं। वे राम भक्ति का एक पर्व बनकर रह गए हैं और उनका सांप्रदायिकरण भी हो गया है। भले ही उनका सूर्य नमस्कार से गहरा नाता न रहा हो। पर वे योग गुरु भी बन गए हैं। युवा दिवस के नाम पर जो कुछ राज्य में हुआ, वह अजीब सा संकेत देता है। अगली पीढ़ी को जब जवान होगे तो विवेकानंद को क्या समझेगें? क्या उन्हें कट्टर हिंदुवादी संत माना जाएगा? या राम कथाकार?

Sunday, January 10, 2010

नेत्री की पोरन पोली...पत्रकारों की ऊंगलियां

आज भाईदूज थी। बहन एक नेत्री थी और भाई बहुत सारे पत्रकार। बहन ने अपने हाथों पर टेबल पर सजी थालियों में पूरन पोली..बेसन से बनी मीठी रोटी.. परोसी। पीछे चलने वाले कर्मचारी से दिखने वाले युवक के हाथ में घी का गिलास था। वे पोली पर इसे डालकर चूर-चूरकर खाने का आग्रह कर रहे थे। खाने के शौकीनों ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। जमकर खाया और कहा अब तो एक-दो घंटे नींद लेना पड़ेगी।

सोचने की बात यह है कि बगैर सीजन भाईदूज कहां से आ गई? दरअसल, यह एक ऐसी भाईदूज है, जिसका इंदौरी पत्रकारों को बेसब्री से इंतजार रहता है। रहे भी क्यों न, एक ऐसी नेत्री के हाथों उन्हें खाने को मिलता है, जो आमतौर पर किसी को घास  योग्य भी नहीं समझतीं। वे बार बार चुनाव जितती हैं। कुछ लोग इसे उनकी साफ-सुथरी छवि का जादू कहते हैं तो कुछ विरोधी पार्टी का वॉकओवर। मीडिया चरित्र से यह नेत्री पूरी तरह वाकिफ है और तोल-तोलकर ही उनसे ताल्लुकात बढ़ाती या घटाती हैं। जनभावनाओं के चलते मीडिया मजबूर है कि बगैर पैकेज नेत्री को तवज्जो देना पड़ती है।

पत्रकार बताते हैं भाईदूज की डोर से बांधना नेत्री का बहुत पुराना शगल है। हालांकि, खाने के दौरान डोर से बांधने जैसी कोई रस्म नहीं होती है। वे तो बस यह सोचकर एक पुस्तक देती हैं कि पत्रकार पढ़ाकू होते हैं। ज्यादातर वहां से वही पुस्तक मिलती है, जिसमें पार्टी की विचारधारा को सशक्त किया जा सके। इस बार भी ऐसा ही हुआ। पुस्तक राजनीति की सख्शियत विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा है और इसका शीर्षक है राजपथ से लोकपथ तक । पुस्तक अभी तक पढ़ी नहीं है, लेकिन इसके बैककवर पर अयोध्या को नगर नहीं, देश की भावनाओं का केंद्र बताया गया है। पुस्तक की संपादक मृदुला सिन्हा हैं।

भोजन का रसास्वदन करने वालों में पत्रकारों से साथ ही संपादक, इंचार्ज, वरिष्ठ पत्रकार, कॉलमिस्ट से लेकर मीडिया  मालिकान तक मौजूद थे। दूसरी तरफ नेत्री खेमे के विधायक, पार्षद के साथ ही किचन केबिनेट के लोग। हंसी-ठिठोली भी हुई। एक पत्रकार ने यह कहकर पोली ले ली कि जब आपको सात बार से विपक्षी नहीं हरा सके तो मैं भला क्या कर सकता हूं, आप लाईं हैं तो खुशी से रख दीजिए।

यह भाईदूजी भोज नि:संदेह होटल, क्लब, फार्महाउस पर होने वाली पार्टियों से अलग था। पर उद्देश्य की दृष्टि से देखें तो यह किसी लाइजनिंग पार्टी से अधिक कुछ नहीं। जिस प्रकार से खबरें संस्कारित होती हैं, उसी तरह से यह पार्टी भी संस्कारित थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह बहुत ही सोफेस्टीकेटेड करप्शन था। देने वाला भी संस्कारवान और लेने वाला भी। एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं इसमें बुराई क्या है, कम से कम वे दूसरे नेताओं जैसी तो नहीं हैं, जो दावत के बाद छपास की चेष्ठा में रहते हैं। मैंने कहा यही तो खास बात है नेत्री की। उनके कुछ कहे बगैर ही काम बन जाता है।

यह सब पूरन पोली के साथ परोसे गए घी का नतीजा है। दिल के दौरे जैसी परेशानी न हो तो घी खाने में कोई  बुराई नहीं है...बस जरूरत इस बात की है कि ऊंगलियां सलामत रहें ताकि दफ्तर में बैठकर कीबोर्ड का टका-टक इस्तेमाल कर सकें।

नोट: नेत्री सांसद हैं और उन्हें सुमित्रा महाजन कहा जाता है। 

एक से या अनेक से !


यह नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन) का नया प्रचार मंत्र है। मंत्र के साथ एक छोटा सा कंडोम कार्टूननुमा आकार में खड़ा है और हंसते हुए कह रहा है कंडोम से। नाको ने मंत्र जनहित में जारी किया है।
मेरे घर के पास बंगाली चौराहे के एक कोने पर इस विज्ञापन का बड़ा सा होर्डिंग टंगा है। चौराहे पर दिवंगत माधवराव सिंधिया की काली प्रतिमा की दिशा भी कुछ ऐसी है मानो उसकी निगाहें विज्ञापन के अर्थों को समझने की कोशिश कर रही हों। वह तो काले पत्थर की मूरत है, क्या सोच रही है, बता नहीं सकता, लेकिन मैं तो हाड़-मांस का ढांचा हूं। थोड़ा सा खुश इसलिए हूं कि घर से पत्नी को लेकर निकलते वक्त चौराहे पर होकर जाना जरूरी नहीं। बाजू की गली से एक शार्टकट निकलता है, जिससे चौराहे पर जाए बगैर भी अपनी राह पकड़ी जा सकती है। होर्डिंग टंगने के बाद से शार्टकट ही मेरा मार्ग है।
मैं रास्ता क्यों बदल रहा हूं? क्योंकि होर्डिंग हटवाना मेरे बस में नहीं। मैं तो बस होर्डिंग के मंत्र का अर्थ करता हूं तो डर जाता हूं। दरअसल इतना महिला भोगी नारा पहले कभी खुले आम देखने या पढऩे को नहीं मिला। नारे का संदेश साफ है महिला भोग की वस्तु है और सिर्फ किसी एक से संबंध बनाना न तो नैतिकता है और न ही समय की जरूरत। जिस्मनुमा वस्तु का सेवन करो। बस ध्यान यह रहे कि आपने कंडोम नाम का कवच धारण कर रखा हो!
नाको की इस अश्लील हिमाकत के पीछे कौन है? यह पूछने या बताने की जरूरत नहीं। मामूली समïझदार भी यह जानता है कि कुछ कंपनियों के आर्थिक असले को बढ़ाने के खातिर देश में कंडोम प्रमोशन का काम बहुत तेज रफ्तार के साथ जारी है। इस रफ्तार में नैतिकता, मूल्य, सच्चाई, स्त्री मर्यादा, शर्म, लिहाज, जैसे तमाम छोटे पर अहम स्टेशन पीछे छूट रहे हैं।
मेरे मित्र डॉ. मनोहर भंडारी और डॉ. सदाचारी सिंह तोमर इस कंडोम प्रमोशन के खिलाफ तथ्यों के साथ जुटे हैं। उन्होंने नाको से कुछ सवाल पूछे, जिनके जवाब नाको के पास भी मौजूद नहीं है। नाको से उन्हें मिली चिठ्ठी के मुताबिक नाको को यह पता नहीं है कि चुंबन से एड्स होता है या नहीं, और कंडोम पहनने भर से आप एड्स से बच जाएंगे या नहीं? जरा गौर करें, दो सवाल व जवाबों पर -

सवाल-
नाको ने चुंबन को एचआईवी संक्रमण की दृष्टि से न तो निरापद बताया जाता है न ही संक्रामक। आखिर यह रहस्य क्यों?
जवाब -
इस पर विचार संबंधी पुस्तक भेजी जा रही है। (पुस्तक में एचआईवी संक्रमण से बचने के तरीके बताए गए हैं, इसमें चुबंन का जिक्र नहीं है।)

सवाल-
भारत में गर्भधारण व गुप्त रोगों के संक्रमण की दृष्टि से निरोध एवं अन्य माध्यमों की असफलता की कितनी औसत दर है?
जवाब-
इस विषय पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

तो आप भी सोचिए ... देश में एड्स फैलने से रोकने के लिए बनाए गए सर्वोच्च संस्थान को यह पता नहीं है कि निरोध जैसे साधनों की असफलता का प्रतिशत क्या है? फिर भी आप चाहते हैं 
 एक से या अनेक से तो मर्जी आपकी।

Wednesday, January 6, 2010

अमोल आत्रे और रणछोड़दास चांचड़



जी हां, 2009 के आखिर में हिंदी सिनेमा ने देश के युवाओं के लिए ये ही दो नए पात्र गढ़े हैं। दोनों युवा हैं और दोनों अलग अलग शख्सियतों को बयां करके युवाओं को सम्मोहित करने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते। एक को आर. बाल्की नामक निर्माता ने रचा है तो दूसरे को विधु विनोद चोपड़ा ने। एक फिल्म पा का तो दूसरा थ्री इडियट्स का हीरो है। अमोल आत्रे का चोला अभिषेक बच्चन ने पहना है जबकि रणछोड़दास चांचड़ के लबादे में आमिर खान को फिट किया गया है।

अमोल आत्रे देश में पनप रही युवा राजनीति का चेहरा है। वह मीडिया की सड़ांध और राजनीति के गंदगी से मुकाबला करता दिखता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया का चरित्र चित्रण करते हुए वह सरकारी संचार जरिया यानि दूरदर्शन के मार्फत अपनी बात देश भर में पहुंचाता है। वह एक सांसद है और देश की शीघ्र प्रगति चाहता है। उसे अपनी गलतियों जैसे कॉलेज लाइफ में गर्ल फ्रेंड के साथ बरती असावधानी को जगजाहिर करने में भी गुरेज नहीं। वह पिता, पुत्र और पति तीनों रोलों के साथ न्याय की चेष्ठा करता दिखता है। साथ ही जननेता के रूप में भी खुद को पेश कर देता है। हालांकि, अमोल आत्रे देश में चल रही परिवारवाद की राजनीति का मुखड़ा भी है।
रणछोड़दास चांचड़ एक इंजीनियर छात्र है। वह कहता है इंजीनियरिंग मेरा पेशन है। किरदार में भी यह साफ झलकता है। वह मनमौजी किस्म का है और युवाओं को मन में आए वही करो  का संदेश देता है। प्रोफेसरों के अपमान से लेकर रैगिंग लेने वाले सीनियर्स को सबक सिखाने तक के तमाम मसालेदार फार्मूले फिल्म में तय किए उसके चरित्र को मजबूती देते हैं। फिल्म के आखिर में वह भी उसी फंदें में फंसा दिखता है, जिसके निकलने का पूरी फिल्म में कोशिश करता रहता है।
आंत्रे और चांचड़ दोनों ही युवाओं को थिएटर तक खींच लाने के लिए बनाए गए पात्र हैं। एक जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाता है, जबकि दूसरा लापरवाही को जीवन मंत्र की तरह अपनाने की गैर जिम्मेदाराना राहों का पथिक है। यह बात और है कि दोनों ही सितारे अभिनय के स्तर पर न्याय करते हैं, लेकिन सीख किसकी मानी जाए...यह जितना मुश्किल है, उतना ही आसान भी।