Wednesday, February 2, 2011

बच्चा अफसर

एक बात समझ से परे है कि कोई भी अफसर या नेता गांव का हाल जानने जाता है तो वहां के बच्चों के ज्ञान की परीक्षा लेना क्यों शुरू कर देता है? बच्चों से पूछा जाता है वर्ग-वर्गमूल में क्या फक्र है, हमारा मुख्यमंत्री कौन है, टीवी पर समाचार सुनते हो या नहीं, आदि-आदि। बच्चे तो बच्चे ठहरे, भले गांव के हों या शहर के। जवाब मिलेजुले आते हैं। जवाब सुनकर अफसर-नेता हंसते हैं और जनसंपर्क अफसर अपने नोट पेड पर इसे दर्ज कर लेते हैं। अखबार भी जनसंपर्क विभाग के प्रेस नोट को तवज्जो देकर हेडलाइन बना देते हैं। बस हो गया काम। जनता में भ्रम बरकरार है कि अफसरों व नेताओं को गांवों का भी ख्याल है।
इंदौर के दो बड़े अफसर भी इन दिनों इसी काम में लगे हैं। संभागायुक्त बसंतप्रताप सिंह व कलेक्टर राघवेंद्र सिंह। राज्य सरकार के फरमान के पालन में दोनों गांवों में रातें गुजार रहे हैं। मैं उनके साथ दौरे पर तो नहीं गया परंतु जो जानकारी मिली है, वह सवाल पैदा करती है। गांवों जाकर वहां के बच्चों के सामान्य ज्ञान को परखने की कोशिश करके अफसर क्या साबित करना चाहते हैं?  कलेक्टर किसी बच्चे से वर्ग व वर्गमूल का अंतर पूछेंगे और वह नहीं बता पाएगा तो इससे क्या साबित हो जाएगा? संभागायुक्त देश के प्रधानमंत्री का नाम पूछेंगे व बच्चा कहेगा शिवराजसिंह चौहान तो क्या हासिल होगा?  यह तो एक तरह से बच्चों व गांव वालों का अपमान है। सालों से इसी जिले के हालात बदलने के लिए नौकरी कर रहे साहबों ने पहली बार गांवों में कदम रखा और बच्चों पर टूट पड़े। उन हालात का जायजा लिए बगैर सवाल दाग दिए, जिनके रहते ये ग्रामीण बच्चे कुछ मामलों में कभी शहरी बच्चों से कंधा मिलाकर खड़े ही नहीं हो सकेंगे।

बेहतर तो यह होता कि वे गांव पहुंचकर पता करते कि गांव में पहुंचने वाल सड़क क्यों नहीं बन पाई? गांव में रोज बिजली क्यों नहीं मिल रही है? गांव में अस्पताल है या नहीं? नहीं है तो बीमार को गांववाले कैसे बचाते हैं? किसान के खेतों के लिए बीज-खाद का क्या इंतजाम है? बच्चा सही जवाब नहीं दे पाए तो अफसर हंसते हैं लेकिन बच्चे की इस दशा के लिए जिम्मेदार कौन है? संभागायुक्त व कलेक्टर दोनों ही भारत की सबसे बड़ी परीक्षा (कथित) आईएएस पास करके सेवा में आए थे तो उन्होंने जो शपथ ली थी, क्या उस पर वे खरे उतर रहे हैं?  उन्हें तो यह भी याद नहीं है कि जिस शहर की सड़कों पर वे लाल-पीली बत्ती की गाड़ी में घुमते हैं, उसी में बच्चों को शिक्षा का अधिकार हासिल नहीं हो पा रहा।

यह जानना रोचक होगा कि कलेक्टर के बच्चे शहर के सबसे महंगे व राजसी स्कूल डेली कॉलेज में पढ़ते हैं।  वे जिन बच्चों की मौखिक परीक्षा ले रहे हैं वे उन गांवों में रहते हैं जहां बिजली, सड़क, पानी, अस्पताल नहीं है। उन्हें पढ़ाने वाले मास्टरजी भी कभी कभी ही गांव में आते हैं।

बेहतर होगा कि गांव के बच्चों की परीक्षा लेने के बजाए जवाबदेही दिखाई जाए। शिक्षा का अधिकार कानून को समझ-पढ़कर अमल में लाने की पहल हो ताकि उन बच्चों को शर्मिंदा न होना पड़े, जिनके गांवों में साहब लोग बरसों-बरस में कभी कभार ही जाते हैं।